न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर महाभियोग का खतरा: जांच प्रक्रिया और पुराने मामलों की जानकारी
भारत की न्यायपालिका, जो हमारे लोकतंत्र का मजबूत आधार है, एक बार फिर चर्चा में है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग शुरू करने की सलाह दी है। यह सलाह 4 मई, 2025 को तीन जजों की जांच समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। यह मामला दिल्ली में न्यायमूर्ति वर्मा के पुराने सरकारी घर में 14 मार्च, 2025 को लगी आग के बाद मिली बिना हिसाब की नकदी से जुड़ा है। इस लेख में हम आसान भाषा में आरोपों, जांच प्रक्रिया, महाभियोग के तरीके और पुराने मामलों के बारे में बताएंगे, ताकि यह समझा जा सके कि आगे क्या हो सकता है।
आरोप: जवाब और सवाल
यह विवाद तब शुरू हुआ जब दिल्ली के तुगलक क्रिसेंट में न्यायमूर्ति वर्मा के पुराने सरकारी घर में आग लगी, जहां वे दिल्ली हाई कोर्ट के जज थे। दमकलकर्मियों ने एक स्टोररूम में जली हुई नकदी की बोरियां देखीं, जिससे कई सवाल उठे। दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय ने शुरुआती जांच की और पाया कि इसकी गहराई से जांच जरूरी है। 22 मार्च, 2025 को, सीजेआई खन्ना ने तीन जजों की एक समिति बनाई, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागु, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति अनु शिवरामन शामिल थे।
समिति को तीन सवालों की जांच करनी थी: नकदी कहां से आई, न्यायमूर्ति वर्मा ने इसका क्या जवाब दिया, और अगले दिन बची हुई नकदी को किसने हटाया। समिति ने सबूतों, फोन रिकॉर्ड और 50 गवाहों, जैसे पुलिस और दमकल कर्मियों, के बयानों की जांच की। न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि कोई नकदी नहीं थी, स्टोररूम कर्मचारियों के लिए खुला था, और वे उस समय भोपाल में थे। उन्होंने इसे अपनी छवि खराब करने की साजिश बताया। लेकिन समिति ने उनके दावे को गलत ठहराते हुए बड़ी मात्रा में नकदी मिलने की पुष्टि की।
4 मई, 2025 को, सीजेआई खन्ना ने न्यायमूर्ति वर्मा को इस्तीफा देने या रिटायर होने की सलाह दी। उनके मना करने पर यह मामला महाभियोग की ओर बढ़ गया है, और रिपोर्ट अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास है।
जांच प्रक्रिया: न्यायपालिका की सुरक्षा
1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने सी. रविशंकर अय्यर बनाम न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्जी मामले में एक आंतरिक जांच प्रक्रिया बनाई, ताकि जजों पर गलत काम के आरोपों की जांच हो सके और न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे। इस प्रक्रिया में, पहले शिकायत की सच्चाई जांच की जाती है। अगर शिकायत सही लगती है, तो सीजेआई सीनियर जजों की एक समिति बनाता है, जो गोपनीय जांच करती है। आरोपी जज को जवाब देने का पूरा मौका दिया जाता है, ताकि निष्पक्षता बनी रहे।
अगर समिति को गलत काम के सबूत मिलते हैं, तो सीजेआई जज को इस्तीफा देने की सलाह देता है। अगर जज मना करता है, जैसा कि न्यायमूर्ति वर्मा ने किया, तो मामला महाभियोग की प्रक्रिया में जाता है।
महाभियोग प्रक्रिया: मुश्किल प्रक्रिया
हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने के लिए महाभियोग प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 217 (हाई कोर्ट) और अनुच्छेद 124 (सुप्रीम कोर्ट) में बताई गई है। यह प्रक्रिया इस तरह होती है:
प्रस्ताव शुरू करना: लोकसभा में कम से कम 150 सांसदों या राज्यसभा में 50 सांसदों के समर्थन से महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है।
विशेष बहुमत: प्रस्ताव को दोनों सदनों में दो-तिहाई वोटों (उपस्थित और वोट देने वाले सदस्यों) और कुल सदस्यों के बहुमत से पास करना होता है।
जांच समिति: 1968 के जज जांच कानून के तहत एक समिति बनती है, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज, एक हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश और एक मशहूर वकील शामिल होते हैं। यह समिति आरोपों की जांच करती है।
संसद में मतदान: जांच के बाद, दोनों सदनों में प्रस्ताव पर बहस और वोटिंग होती है। अगर पास हो जाता है, तो राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश देता है।
यह प्रक्रिया बहुत जटिल और लंबी है। भारत में अब तक किसी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज को इस तरह नहीं हटाया गया है।
पुराने मामले: क्या हुआ था?
भारत में जजों के खिलाफ महाभियोग बहुत कम हुआ है। कुछ पुराने मामले इस तरह हैं:
न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (कलकत्ता हाई कोर्ट): 2008 में, एक समिति ने उन्हें कोर्ट द्वारा नियुक्त काम में पैसे के गलत इस्तेमाल का दोषी पाया। इस्तीफा देने की सलाह के बावजूद, उन्होंने मना किया। 2011 में, राज्यसभा ने महाभियोग प्रस्ताव पास किया, लेकिन लोकसभा में वोटिंग से पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरण (सिक्किम हाई कोर्ट): 2009 में, उन पर जमीन हड़पने और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। संसद में समिति बनी, लेकिन 2011 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्जी (बॉम्बे हाई कोर्ट): 1995 में, एक विदेशी प्रकाशक से ज्यादा रॉयल्टी लेने के आरोप लगे। वकीलों के दबाव के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
ये मामले दिखाते हैं कि ज्यादातर जज इस्तीफा दे देते हैं, ताकि महाभियोग की नौबत न आए। लेकिन न्यायमूर्ति वर्मा का इस्तीफा न देना इस मामले को अलग बनाता है।
न्यायमूर्ति वर्मा के लिए आगे क्या?
सीजेआई की सलाह के बाद, अब सरकार को संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाने का फैसला करना है। इसके लिए सभी पार्टियों की सहमति और समय चाहिए। 24 मार्च, 2025 को, न्यायमूर्ति वर्मा को कोई जज का काम नहीं करने दिया गया और उन्हें दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट भेज दिया गया, जहां वे अभी कोई केस नहीं देख रहे। इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकीलों ने उनके आने का विरोध किया है।
सोशल मीडिया पर लोग इस मामले पर खूब बात कर रहे हैं। मणिपुर हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सिद्धार्थ मृदुल ने जांच रिपोर्ट को सबके सामने लाने की मांग की है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा है कि मौजूदा जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का कोई साफ तरीका नहीं है। ये बातें दिखाती हैं कि न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने और लोगों का भरोसा बनाए रखने में कितनी मुश्किलें हैं।
न्यायपालिका के लिए बड़ा मौका
न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का मामला दिखाता है कि जजों की स्वतंत्रता और उनकी जवाबदेही में संतुलन कितना जरूरी है। चाहे यह मामला इस्तीफे पर खत्म हो या संसद में महाभियोग तक जाए, इसका असर भविष्य में ऐसे मामलों को संभालने के तरीके पर पड़ेगा। अभी सरकार और संसद इस पर विचार कर रही है, और यह मामला हमें याद दिलाता है कि न्यायपालिका का सम्मान और लोकतंत्र की मजबूती कितनी जरूरी है।
“न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का मामला दिखाता है कि जजों की स्वतंत्रता और जवाबदेही का संतुलन कितना जरूरी है। यह भारत के संविधान और न्यायपालिका में लोगों के भरोसे की परीक्षा है।”। — लिटरल लॉ संपादकीय टीम
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