नई दिल्ली, 23 मई 2025 — दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि मानसिक विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति को बिना वैधानिक प्रक्रिया अपनाए और न्यायिक संतोष के, आपराधिक मामलों से मुक्त नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 330 का पालन अनिवार्य है।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा की एकल पीठ ने राज्य बनाम नीरज मामले की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की कि मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्ति भले ही अपने कृत्य की गैरकानूनी प्रकृति या परिणामों को न समझ पाए, लेकिन उसके समाज के लिए संभावित खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
“संवेदना और सुरक्षा के बीच संतुलन ज़रूरी”
कोर्ट ने कहा, “यही कारण है कि धारा 330 यह सुनिश्चित करती है कि कोर्ट पहले आरोपी के मानसिक स्वास्थ्य की गंभीरता का मूल्यांकन करे, चिकित्सकीय या विशेषज्ञ राय ले और फिर न्यायिक रूप से संतुष्ट होने पर ही उचित सुरक्षा उपायों के साथ रिहाई का आदेश दे या आवश्यक देखभाल और पुनर्वास के लिए उपयुक्त संस्थान में भेजे।”
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दिल्ली पुलिस द्वारा एक ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती देने के संबंध में था, जिसमें नीरज नामक एक व्यक्ति को एक नाबालिग लड़की से यौन शोषण के मामले में आरोपमुक्त कर दिया गया था। मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया कि नीरज की मानसिक आयु एक चार वर्षीय बच्चे के बराबर है और वह गंभीर मानसिक मंदता से पीड़ित है।
राज्य की ओर से अतिरिक्त लोक अभियोजक (APP) नरेश चाहर ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को केवल एक IQ प्रमाणपत्र के आधार पर discharge कर दिया, जबकि CrPC की धारा 330 के अंतर्गत अनिवार्य जांच नहीं की गई थी। साथ ही, ट्रायल कोर्ट ने सुरक्षित अभिरक्षा और सरकार को रिपोर्ट देने जैसी आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं की भी अनदेखी की।
हाईकोर्ट का निर्णय और टिप्पणियाँ
हाईकोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी द्वारा किए गए कृत्य की प्रकृति और उसकी मानसिक स्थिति की गंभीरता का कोई विश्लेषण नहीं किया। “सत्र न्यायालय ने न तो अपराध की प्रकृति पर विचार किया और न ही आरोपी की मानसिक स्थिति पर कोई विशेषज्ञ राय प्राप्त की, जिससे यह तय किया जा सके कि उसे समाज में सुरक्षित रूप से छोड़ा जा सकता है या नहीं,” कोर्ट ने टिप्पणी की।
कोर्ट ने यह भी कहा कि मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपी को छोड़ने से पहले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वह स्वयं या दूसरों के लिए कोई खतरा न बने। जब तक यह संतोषजनक रूप से स्थापित न हो, तब तक उसे उपयुक्त संस्थान में देखभाल हेतु भेजा जाना चाहिए।
अंततः, कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का आदेश आंशिक रूप से रद्द कर दिया और मामले को दोबारा सुनवाई और धारा 330 के अनुपालन के लिए ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया।