असम में कथित फर्जी एनकाउंटर: सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार आयोग को जांच के आदेश दिए
कोर्ट ने असम में कथित फर्जी पुलिस एनकाउंटर के गंभीर आरोपों की स्वतंत्र और त्वरित जांच के लिए असम मानवाधिकार आयोग (एएचआरसी) को निर्देश दिया है। यह आदेश जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिस्वर सिंह की खंडपीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया, जिसमें असम में अतिरिक्त-न्यायिक हत्याओं की चिंता जताई गई थी। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला वकील अरिफ मोहम्मद यासीन जवाद्दर द्वारा दायर याचिका से जुड़ा है, जिसमें मई 2021 से अगस्त 2022 के बीच असम में 171 कथित फर्जी एनकाउंटरों की जांच की मांग की गई थी। याचिका में दावा किया गया कि इन घटनाओं में 56 लोगों की मौत और 145 लोग घायल हुए, जिनमें चार हिरासत में हुई मौतें शामिल हैं। याचिकाकर्ता ने गौहाटी हाईकोर्ट के जनवरी 2023 के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें इन मामलों की स्वतंत्र जांच के लिए दायर जनहित याचिका (पीआईएल) को खारिज कर दिया गया था। याचिका में सुप्रीम कोर्ट के पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम महाराष्ट्र सरकार (2014) मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों का उल्लंघन होने का आरोप लगाया गया, जिसमें पुलिस एनकाउंटर की जांच के लिए स्वतंत्र जांच, फोरेंसिक विश्लेषण और मजिस्ट्रियल जांच का प्रावधान है।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि केवल मामलों की संख्या के आधार पर व्यापक न्यायिक निर्देश देना उचित नहीं है, लेकिन फर्जी एनकाउंटर के आरोपों को “गंभीर” बताते हुए कहा कि यदि ये सिद्ध होते हैं, तो यह संवैधानिक अधिकारों का गंभीर उल्लंघन होगा। कोर्ट ने कहा, “सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा पीड़ितों के खिलाफ अत्यधिक या गैरकानूनी बल का उपयोग वैध नहीं ठहराया जा सकता।” कोर्ट ने एएचआरसी को निष्पक्ष और पारदर्शी जांच का जिम्मा सौंपा और पीड़ितों या उनके परिवारों को जांच में भाग लेने के लिए सार्वजनिक नोटिस जारी करने का निर्देश दिया।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि असम में पीयूसीएल दिशानिर्देशों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हुआ है। उन्होंने कहा कि अधिकांश मामलों में पुलिस कर्मियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के बजाय पीड़ितों के खिलाफ ही मामले दर्ज किए गए। भूषण ने एक मामले का जिक्र किया, जिसमें एक महिला ने आरोप लगाया कि उसके पति को हिरासत में यातना देकर मार डाला गया, और शव पर चोट के निशान इसकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने 135 गोलीबारी की घटनाओं का भी उल्लेख किया, जो इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाता है।
असम सरकार का पक्ष
असम सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दावा किया कि पीयूसीएल दिशानिर्देशों का पूरी तरह पालन किया जा रहा है और सभी घटनाओं की जांच की गई है। उन्होंने याचिकाकर्ता के इरादों पर सवाल उठाते हुए कहा कि सुरक्षा बलों को निशाना बनाने से उनका मनोबल गिर सकता है, खासकर असम के उग्रवाद के इतिहास को देखते हुए। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पीयूसीएल दिशानिर्देश घटना की जांच पर केंद्रित हैं, न कि बिना सबूत के पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराने पर।
कोर्ट के निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने एएचआरसी को निर्देश दिया कि वह पीड़ितों और उनके परिवारों की गोपनीयता सुनिश्चित करे और स्वतंत्र जांचकर्ताओं, जैसे कि बेदाग रिकॉर्ड वाले सेवानिवृत्त या कार्यरत पुलिस अधिकारियों, को जांच में शामिल करे, जो इन घटनाओं से असंबंधित हों। यदि आयोग को और जांच की आवश्यकता महसूस होती है, तो वह आगे बढ़ सकता है। असम सरकार को सभी संबंधित रिकॉर्ड उपलब्ध कराने और जांच में किसी भी संस्थागत बाधा को दूर करने का आदेश दिया गया।
पिछली सुनवाई और संदर्भ
इससे पहले अक्टूबर 2024 में कोर्ट ने 171 एनकाउंटरों की संख्या को “चौंकाने वाला” बताया था और मजिस्ट्रियल जांच की धीमी गति पर चिंता जताई थी। कोर्ट ने एएचआरसी की उस प्रथा की भी आलोचना की, जिसमें पीड़ितों या उनके परिवारों के अनुवर्तन की कमी के कारण शिकायतें बंद कर दी जाती थीं। कोर्ट ने जोर दिया कि मानवाधिकार आयोग को नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
याचिकाकर्ता का बयान
अरिफ जवाद्दर ने कहा, “वर्दी पहनने वाला कोई भी व्यक्ति बिना जवाबदेही के किसी की जान लेने का हकदार नहीं हो सकता। यह लड़ाई अदालत और देश की अंतरात्मा में जारी रहेगी।” सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश जवाबदेही की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो मानवाधिकार आयोगों की संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने की भूमिका को मजबूत करता है।