मातृत्व अवकाश महिलाओं का बुनियादी हक: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
नई दिल्ली, 23 मई 2025 – सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़े और ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि मातृत्व अवकाश महिलाओं का मूल अधिकार है, जो उनके मां बनने के हक और निजी स्वतंत्रता से जुड़ा है। जस्टिस अभय एस. ओका और उज्जल भुइयां की बेंच ने साफ किया कि कोई भी सरकारी या निजी संस्था किसी महिला को मातृत्व अवकाश देने से रोक नहीं सकती। यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव से मुक्ति) और 21 (सम्मान और निजता के साथ जीने का हक) से जुड़ा है। कोर्ट ने यह भी कहा कि मातृत्व अवकाश केवल एक कानूनी सुविधा नहीं, बल्कि महिलाओं की गरिमा और उनके जीवन के महत्वपूर्ण फैसलों का हिस्सा है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह फैसला तमिलनाडु की एक सरकारी शिक्षिका की याचिका पर आया, जिसे अपनी दूसरी शादी से हुए बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश नहीं दिया गया। तमिलनाडु का नियम कहता था कि मातृत्व लाभ सिर्फ पहले दो बच्चों के लिए मिल सकता है। याचिकाकर्ता की पहली शादी से दो बच्चे थे, लेकिन उन्होंने बताया कि उन्होंने उन बच्चों के लिए कभी मातृत्व अवकाश या लाभ नहीं लिया था। साथ ही, वे दूसरी शादी के बाद ही सरकारी नौकरी में आई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला देते हुए तमिलनाडु के इस नियम को गलत ठहराया। कोर्ट ने कहा कि मातृत्व अवकाश हर महिला का हक है, और इसे बच्चों की संख्या या पारिवारिक स्थिति से जोड़कर सीमित नहीं किया जा सकता।
कोर्ट का क्या कहना है?
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “मातृत्व अवकाश कोई साधारण सुविधा नहीं है। यह महिलाओं को मां बनने और नौकरी के बीच संतुलन बनाने का अधिकार देता है। इसे रोकना संविधान में दिए गए समानता और सम्मान के हक के खिलाफ है।” कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि मातृत्व अवकाश महिलाओं की निजता, उनके शरीर और परिवार से जुड़े फैसलों की आजादी को मजबूत करता है।
मातृत्व लाभ कानून और उसका महत्व
यह फैसला मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 पर आधारित है, जिसे 2017 में बदला गया था। इस कानून के तहत सभी कामकाजी महिलाओं को 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश और गोद लिए बच्चे की मांओं को 12 हफ्ते का अवकाश मिलता है। कोर्ट ने साफ किया कि यह सुविधा हर महिला को बिना किसी शर्त के मिलनी चाहिए, चाहे उनकी पारिवारिक स्थिति कुछ भी हो। मिसाल के तौर पर, अगर कोई महिला दूसरी शादी करती है या अकेले मां बनती है, तब भी उसे मातृत्व अवकाश का पूरा हक है।
कानूनी और सामाजिक प्रभाव
कानून के जानकारों ने इस फैसले को महिलाओं की बराबरी और उनके हक की दिशा में बड़ा कदम बताया है। यह फैसला पुराने और सख्त नियमों को बदलने की जरूरत को रेखांकित करता है, जो आज के समय में परिवारों की बदलती जरूरतों को नहीं समझते। मिसाल के तौर पर, आजकल दूसरी शादी, गोद लेना या अकेले मां बनना आम हो रहा है, लेकिन कई नीतियां इन स्थितियों को ध्यान में नहीं रखतीं।
याचिकाकर्ता की ओर से वकील के.वी. मुथु कुमार ने कहा, “यह फैसला हर कामकाजी मां के लिए एक जीत है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी महिला पुराने नियमों की वजह से अपने हक से वंचित न रहे।”
आगे क्या होगा?
इस फैसले से देशभर में मातृत्व लाभ के नियमों की समीक्षा होने की उम्मीद है। कई राज्यों और संस्थानों को अपने नियम बदलने होंगे ताकि वे कोर्ट के इस आदेश का पालन करें। यह फैसला नियोक्ताओं को भी चेतावनी देता है कि वे महिलाओं के हक को हल्के में न लें। साथ ही, यह समाज को यह संदेश देता है कि मातृत्व और नौकरी को एक साथ जोड़ना हर महिला का हक है।
सुप्रीम कोर्ट ने मातृत्व अवकाश को प्रजनन अधिकारों से जोड़कर भारत में कामकाजी महिलाओं के लिए एक नया और बराबरी वाला रास्ता खोला है। यह फैसला न केवल महिलाओं की गरिमा और स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है, बल्कि समाज में लैंगिक समानता को मजबूत करने में भी मदद करेगा।
लिटरल लॉ न्यूज़ सर्विस